शनिवार, 24 सितंबर 2016

ये कैसा देशप्रेम है हमारा…..!!!



हाल ही में कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कर्नाटक के लोग विरोध में सड़कों पर उतर आए. दर्जनों बस जला दी गयी और कई सरकारी भवन/वाहन आग के हवाले के दिए गए. अब तो मानो यह रोजमर्रा की सी बात हो गयी है. जब भी किसी को किसी भी घटना/फिल्म/बयान/सरकार/फैसले से नाराजगी होती है तो वे सड़कों पर निकल पड़ते हैं और विरोध के नाम पर तोड़फोड़ करने लगते हैं. कभी कोई बस जलाएगा तो कभी सरकारी कार्यालय. कोई अपना गुस्सा सरकारी संपत्ति पर निकालेगा तो किसी की नाराजगी वहां खड़े वाहनों पर निकलेगी. मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इस तोड़फोड़ से या सरकारी संपत्ति में आग लगाने से कौन सा विरोध जाहिर होता है? विरोध करना/नाराजगी जताना या किसी के खिलाफ प्रदर्शन करना हमारा लोकतान्त्रिक अधिकार है और जरुरत पड़ने पर ऐसा करना भी चाहिए ताकि किसी को भी निरंकुश होने या लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के खिलाफ जाने की हिम्मत न पड़े लेकिन सरकारी संपत्ति को जलाना या नुकसान पहुँचाना क्या लोकतान्त्रिक विरोध का हिस्सा है?
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि सरकारी संपत्ति किसकी है- सरकार की? बिलकुल नहीं और वैसे भी सरकार क्या है? क्या यह अंग्रेजों जैसी कोई बाहरी ताकत है जो हम पर थोप दी गयी है या पुराने ज़माने के राजे-महाराजे का दौर है जो दूसरा राजा जब भी उस राज्य पर कब्ज़ा करेगा तो वहां लूटपाट कर सब नष्ट कर देगा. सरकार भी हमारी है और सरकारी संपत्ति भी  क्योंकि अपने मन-मुताबिक सरकार का चयन और चुनाव हम ही करते हैं. हालाँकि हो सकता है कि इस मामले में कुछ लोग यह कुतर्क करने लगे कि हमारे देश में सरकार का गठन बहुमत के आधार पर होता है और आजकल 30 से 40 फीसदी मत हासिल कर कोई भी दल अपनी सरकार आसानी से बना सकता है. ऐसे में लगभग 60 प्रतिशत लोग उसके खिलाफ भी होते हैं इसलिए अब किसी सरकार को पूरी तरह से जनता की सरकार नहीं कहा जा सकता. यदि इन बातों को सही भी मान लिया जाए तो भी इसमें सरकारी संपत्ति का क्या दोष? सरकारी संपत्ति किसी भी सरकार की बपौती नहीं है बल्कि वह आम जनता के गाढ़े खून पसीने की कमाई है, लाखों कर दाताओं के पैसे से बनती है सरकारी संपत्ति. हम जैसे आम लोग दिनभर सेल्स टैक्स से लेकर इनकम टैक्स और सेवा कर से लेकर वैट जैसे तमाम करों का परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जो भी भुगतान करते हैं उससे बनती है सरकारी संपत्ति. इसका मतलब तो यही हुआ न कि सरकारी संपत्ति हमारी ही है क्योंकि यह हमारे ही पैसों से बनी है. तो क्या विरोध के नाम पर अपने ही पैसों को आग लगाना उचित है?
क्या आपने आज तक कभी सुना है कि पति और पत्नी के बीच किसी फैसले पर असहमति के कारण उनमें से किसी ने अपने ही घर में आग लगा दी हो या पिता के डांटने पर या बेटे के परीक्षा में असफल होने पर पिता ने अपनी कार जला दी हो. कहने का मतलब यह है कि जब हम घर में कितने भी परस्पर मुटाव के बाद अपनी सम्पत्ति को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाते तो फिर देश में ऐसा क्यों करते हैं. आखिर देश है क्या? हम-आप से ही तो मिलकर बना है यह देश. देश में है क्या-हम,हमारे बच्चे,हमारे दोस्त/रिश्तेदार/समाज, हमारे घर,हमारे स्कूल,हमारे कालेज,हमारे कार्यालय, हमारे वाहन,हमारी कम्पनियां, हमारे कल-कारखाने इत्यादि सब कुछ तो हमारा ही है. देश भूगोल की किताब में बना मानचित्र भर नहीं है और न ही पड़ोसी देशों के साथ खिंची विभाजन रेखाएं बल्कि यह जीते जाते लोगों का एक बृहत्तर समाज है जहाँ सुचारू संचालन के लिए प्रशासन/सरकार जैसी अनेक छोटी-बड़ी व्यवस्थाएं कायम की गयी है. कहीं इस व्यवस्था को हम पंचायत कहते हैं तो कहीं नगर पालिका/नगर निगम, कहीं राज्य सरकार या फिर कहीं केंद्र सरकार के नाम से जानते हैं. इस व्यवस्था को और सुचारू बनाने के लिए विभागों का सृजन हुआ जिनमें हम-आप काम करते हैं. विभागों या विकेंद्रीकरण की जरुरत भी इसलिए पड़ी कि हर व्यक्ति तो हर काम कर नहीं सकता इसलिए अपनी-अपनी योग्यता के हिसाब से कोई ट्रेन चलाने लगा तो कोई बैंक और कोई व्यापार करने लगा. समाज के ये सारे अंग भाषा/संस्कृति/ परिवेश और परस्पर अनुकूलता के फलस्वरूप घर/समाज/मोहल्ला/राज्य जैसी तमाम इकाइयों से होते हुए देश बन गए. अब बताइए कि क्या देश कोई बाहर की दुनिया की चीज है?
अब फिर उसी मूल प्रश्न पर आते हैं कि विरोध के नाम पर अपनी ही संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर हम किसको दुःख देते हैं? सरकारी बसें जलाकर या कार्यालयों में तोड़फोड़ करके हम अपने को ही तो क्षति पहुंचाते हैं! अब यदि कावेरी विवाद में 40 से ज्यादा बसें जली और हजारों करोड़ की संपत्ति का नुकसान हुआ तो उसका खामियाजा किसको भरना पड़ेगा, हम को ही और किस को. जो पैसा नए स्कूल या अस्पताल बनाने में खर्च होता,युवाओं को कौशल युक्त बनाकर स्वरोजगार के लिए अपने पैरों पर खड़ा करने में होता अब वो ही पैसा फिर से बस खरीदने में होगा या उन सरकारी दफ्तरों की मरम्मत में खर्च होगा जिन्हें हमने अपने क्षणिक आवेश में आग के हवाले कर दिया था. जब हम बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी अपना,अपने परिजनों का और अपने घर का ध्यान रखना नहीं भूलते तो फिर विरोध में सड़क पर उतरते वक्त यह क्यों भूल जाते हैं कि हम गुस्से में जो भी तोड़/जला रहे हैं वह भी पूरी तरह से हमारा ही है और हमारे ही पैसों से बना है तथा इसमें जो भी नुकसान होगा उसकी भरपाई भी हमें ही अपने अन्य खर्चों में कटौती करके करनी होगी. फिर यह कटौती किसी योजना के रूप में हो सकती है या फिर नए या बढे हुए कर के रूप में भी.
दरअसल अपनी ही संपत्ति की तोड़फोड़ या आगजनी की यह बीमारी हमें अंग्रेजों के विरोध के समय से लगी है. उस समय तो फिर भी यह जायज था क्योंकि हमारा सारा मुनाफ़ा बटोरकर अंग्रेज अपने साथ ले जा रहे थे और अपने ही देश में हम गुलामों की तरह रहने को मजबूर थे इसलिए उस समय सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुँचाने का उद्देश्य अंग्रेजों को चोट पहुंचाने के लिए किया जाता था. हम अपने इस विरोध में सफल रहे और अंग्रेजों को देश छोड़कर जाना पड़ा. हमने अपना देश तो पा लिया परन्तु उसे अपना आज भी नहीं बना पाए तभी तो आज तक जरा भी कुछ हुआ नहीं कि चल पड़ें अपने ही देश को नुकसान पहुँचाने. आलम यह है कि चाहे आतंकी हमला हो या सैनिकों का शहीद होना, बिजली गुल होना हो या पानी नहीं आना,अस्पताल में परिजन की मौत हो या फिर पुलिस की गोली से, हम गुस्से में अपनी ही संपत्ति बर्बाद करते हैं. सोचो जरा, मुश्किल से तो इलाके में एक अस्पताल बना था अब उसे ही जला दिया तो फिर इलाज के लिए हम आप कहाँ जायेंगे. यहीं नहीं, जिन पैसों से दूसरा अस्पताल बन सकता था उससे अब इसी अस्पताल की मरम्मत होगी. बिलकुल इसी तरह बंगलुरु में जो पैसा परिवहन व्यवस्था को और बेहतर बनाने पर खर्च होता अब उससे इन जलाई गई बसों की भरपाई हो पाएगी और शहर की परिवहन व्यवस्था दस साल पीछे रह जाएगी. 
मसला बंगलुरु,दिल्ली,भोपाल या गुवाहाटी का नहीं है बल्कि देश भर में शहर से लेकर गाँव तक यही हाल है कि हम अपनी सारी नाराजगी देश की संपत्ति पर निकाल देते हैं. विरोध करिए और हर गलत बात के विरोध में एकजुट होना भी चाहिए लेकिन विरोध के तरीके जरुर बदलने होगे. न तो हमें सरकारी (इसे अपनी पढ़े) संपत्ति को क्षति पहुंचानी चाहिए और न ही किसी को ऐसा करने देना चाहिए और यदि कोई ऐसा करते दिखता है तो हमें बिलकुल उसीतरह सतर्क होकर उस व्यक्ति की मुखालफ़त करनी चाहिए जैसे हम अपने घर की सुरक्षा करते हैं.यदि एक बार हम चंद मुट्ठी भर लोगों के हाथ का खिलौना बनकर तोड़फोड़ करने के स्थान पर अपने देश की संपत्ति के संरक्षक बन गए तो फिर आतंकी तो आतंकी दुनिया की कोई ताकत हमारे देश का बाल बांका नहीं कर सकती. 

रविवार, 21 अगस्त 2016

ज़िन्दगी की जंग हारकर भी जीत गया ‘बंग बहादुर’

जिन्दगी और मौत की जंग में मौत भले ही एक बार फिर जीत गयी हो लेकिन बंग बहादुर ने अपनी जीवटता,जीने की लालसा,जिजीविषा और दृढ मनोबल से मौत को बार बार छकाया और पूरे पचास दिन तक वह मौत को अपने मज़बूत इरादों से परास्त करता रहा. उसे इंतज़ार था कि सत्तर के दशक की लोकप्रिय फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ की तर्ज पर कोई इंसान उसे समय रहते बचा लेगा. बंग बहादुर को बचाने के इंसानी प्रयास तो हुए लेकिन वे सरकारी थे और नाकाफ़ी भी, इसलिए शायद कामयाब नहीं हो पाए.
बंग बहादुर ने अपनी हिम्मत, संघर्ष शीलता और जीने की इच्छाशक्ति के फलस्वरूप जीवटता की नई कहानी लिख दी. एक ऐसी कहानी जिसे सालों-साल दोहराया जायेगा. दरअसल बंग बहादुर सुदूर पूर्वोत्तर में असम का एक हाथी था और उसकी जीवटता के कारण ही उसे ‘बंग बहादुर’ नाम दिया गया था.
दरअसल बह्मपुत्र में आई विकराल बाढ़ के चलते लगभग चार टन का यह हाथी असम में अपने झुंड से 27 जून को अलग हो गया था और बाढ़ के पानी में बहते-बहते बांग्लादेश तक पहुंच गया । भीषण बाढ़ के बीच प्रतिकूल परिस्थितियों में करीब 1,700 किलोमीटर बहने के बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी और पानी में फंसा होने के बाद भी स्वयं को बचाने के लिए लगातार संघर्ष करता रहा.
केवल पानी के सहारे तो इतने लम्बे समय तक इंसानी जीवन भी मुश्किल है फिर वह तो चार टन का भारी-भरकम हाथी था. बंग बहादुर नाम मिलने के बाद भी यह शाकाहारी प्राणी अपना स्वभाव नहीं बदल पाया अन्यथा मछलियाँ खाकर अपना पेट भर सकता था. न तो उसे रसीले गन्ने मिले और न ही पेड़ों की पत्तियां क्योंकि बाढ़ की विकरालता में कुछ भी टिक पाया. बस टिका रहा तो बंग बहादुर लेकिन बाढ़ में घिरे होने के कारण बंग बहादुर को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल पाया. भोजन के अभाव में उसकी शक्ति धीरे धीरे कम होती गई और कमजोरी के कारण उसकी हिम्मत जवाब दे गयी।
जब उसकी जीवटता को स्थानीय मीडिया में जगह मिली तो सम्बंधित विभागों की तन्द्रा टूटी और फिर उसे बचने के प्रयास शुर हुए. भारत और बंगलादेश दोनों ही देशों ने संयुक्त रूप से इस हाथी को बचाने के लिए टीम बना दी. यही नहीं, हाथी को बचाने के लिए असम के पूर्व मुख्य वन संरक्षक के नेतृत्व में भारत का एक विशेषज्ञ दल भी बांग्लादेश भेजा गया था.
छह हफ्तों के अथक प्रयास के बाद, 11 अगस्त को किसी तरह पानी से बाहर निकाल लिया गया लेकिन अब तक अपने दम पर अनहोनी और आशंका के बीच संघर्ष कर रहा बंग बहादुर एकाएक अपने इर्द-गिर्द इतने इंसानों को देखकर घबरा गया और कमज़ोरी के बाद भी भाग निकला, लेकिन इस दौरान एक गड्ढे में गिरने से यह अचेत हो गया । वन अधिकारियों और ग्रामीणों ने उसे किसी तरह गड्ढे से बाहर निकाला। ढाका से करीब 200 किलोमीटर दूर उत्तरी जमालपुर जिले के कोयरा गांव से उपचार के लिए सफारी पार्क ले जाने की प्रक्रिया के दौरान 17 अगस्त को बंग बहादुर की मौत हो गई।
बंग बहादुर का पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सकों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि हाथी की मौत गर्मी के चलते दिल का दौरा पडऩे से हुई। उधर,बचाव दल के सदस्यों ने भी मान लिया कि भरसक कोशिश के बाद भी वे बंगबहादुर को बचा नहीं पाए परन्तु उसकी मौत का दुख है क्योंकि हम भी इस बहादुर हाथी को खोना नहीं चाहते थे। जो भी हो, दो महीने तक मौत से जंग लड़ने वाला बंग बहादुर तो हारकर भी जीत गया लेकिन हम इंसानों को एक शर्मनाक स्थिति में भी छोड़ गया. आखिर हमने उसके दो माह के संघर्ष पर अपनी बेपरवाही से पानी जो फेर दिया.




मंगलवार, 16 अगस्त 2016

पूर्वोत्तर में भी सिपाहियों ने की थी मंगल पांडे जैसी बगावत...!!

जब भी देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अर्थात् 1857 में सिपाहियों के विद्रोह (Sepoy Mutiny) की बात चलती है तो हमेशा मेरठ, झाँसी, दिल्ली, ग्वालियर जैसे इलाकों और बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे कुछ राज्यों तक सीमित होकर रह जाती है. आज़ादी की अलख जगाने वाले इस सबसे पहले विद्रोह को आमतौर पर उत्तर भारत तक सीमित कर दिया गया है. शायद इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि विद्रोह की आग पूर्वोत्तर के राज्यों तक भी आई थी और असम-त्रिपुरा जैसे राज्यों के सिपाहियों की इस विद्रोह में अहम् भूमिका भी थी.
जानकारी के अभाव में पूर्वोत्तर में इस आन्दोलन की गूंज इतिहास में स्पष्ट और उल्लेखनीय मौजूदगी दर्ज नहीं करा पायी और इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर भारत में इस विद्रोह के बाद मंगल पांडे,रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे,नाना साहेब पेशवा,बहादुर शाह ज़फर जैसे तमाम नाम इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज होकर घर-घर में छा गए, वहीँ पूर्वोत्तर में इसी विद्रोह में शामिल सिपाहियों के नाम तक कोई नहीं जानता. यहाँ तक की ऐसा कोई विद्रोह भी हुआ था इस बारे में भी लोगों को ठीक ठीक जानकारी नहीं है. हालाँकि, इस लेख का उद्देश्य न तो सिपाहियों के विद्रोह से शुरू हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्षेत्रवार तुलना करना है और न ही हमारे महान शहीदों के योगदान को कम करके आंकना है. वैसे भी उत्तर भारत में इस आंदोलन की तीव्रता इतनी ज्यादा थी कि उसकी तुलना किसी और क्षेत्र से हो भी नहीं सकती क्योंकि इस विद्रोह से कई जगह अंग्रेजों के पैर उखड़ गए थे और उनकी सत्ता जाने तक की स्थिति बन गयी थी. ऐसा माना जाता है कि यदि उस समय के सभी राजाओं ने साथ दिया होता तो शायद देश तब ही स्वतंत्र हो जाता.
जब भी पूर्वोत्तर और खासकर असम में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े यत्र-तत्र बिखरे पन्नों को सिलसिलेवार जोड़ने का प्रयास होता है तो मनीराम बरुआ, सूबेदार शेख भीकम, निर्मल हजारिका, महेश चन्द्र बरुआ, मधु मलिक, चारु गुहाइन, रस्तम सिंह जमादार, हवलदार राजाबली खान, गौचंदी खान, चौधुरी और मजुमदार परिवार जैसे कई प्रमुख किरदार सामने आते हैं जिन्होंने सिपाहियों के विद्रोह में रणनीति बनाने से लेकर उन्हें हथियार, पैसा, सहयोग, छिपने के ठिकाने इत्यादि मुहैया कराकर इस विद्रोह को सही दशा-दिशा देने में अहम् भूमिका निभाई थी. इसीतरह चटगांव व सिलहट(अब बंगलादेश में), मौजूदा बराक घाटी या दक्षिण असम के चतला, रौटिला, आज के मासिमपुर और अरुणाचल, लातू बाज़ार, हैलाकांदी और करीमगंज जैसे कई जाने-माने इलाके सामने आते हैं जो विद्रोही सिपाहियों और अंग्रेजी सेना के बीच संघर्ष के गवाह रहे हैं.
बराक घाटी में आज भी गाये जाने वाले ‘जंगिया गीतों’ अर्थात जंग से जुड़े लोकगीतों में इन स्थानों और सिपाहियों के विद्रोह के अहम् किरदारों का भरपूर उल्लेख मिलता है. असम विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर सुबीर कार ने भी अपने स्तर पर इन गीतों के माध्यम से इस इतिहास को सिलसिलेवार ढंग से एकसूत्र में पिरोने का प्रयास किया है. इसीतरह कुछ अन्य इतिहासकारों ने भी समय-समय पर इस दौर की उथल-पुथल का उल्लेख किया है. इतिहासकारों के मुताबिक जहाँ उत्तर भारत में सिपाहियों के विद्रोह की शुरुआत मई 1857 में हो गयी थी वहीँ पूर्वोत्तर में विद्रोह का आरम्भ 18 नवम्बर 1857 को 34 वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट की बगावत से हुआ. बताया जाता है कि इस रेजिमेंट ने बिल्कुल उत्तर भारत के विद्रोह की शुरुआत के नायक मंगल पांडे के अंदाज़ में चटगांव में बगावत का बिगुल बजाते हुए न केवल हथियार और सरकारी खजाना लूट लिया बल्कि यहाँ जेल में बंद कैदियों को भी आज़ाद कर दिया.
उल्लेखनीय बात यह है कि अगस्त 1857 तक इस रेजिमेंट को अंग्रेजों(तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कंपनी) का वफादार माना जाता था लेकिन उत्तर भारत से छन-छनकर आ रही ख़बरों ने यहाँ भी बेचैनी उत्पन्न कर दी थी. कहते हैं न कि अफवाहे आंधी-तूफ़ान की गति से फैलती हैं और यही इस मामले में भी हुआ. उस समय आज की तरह समाचार पत्र, न्यूज़ चैनल और इंटरनेट तो था नहीं कि वास्तविक जानकारी मिल पाए इसलिए इसके-उसके मुंह से फैलती बातों और वहां से यहाँ आने वाले लोगों से सुने किस्सों ने इस बेचैनी को विद्रोह में बदलने में प्रमुख भूमिका निभाई. इसी बीच दानापुर और जगदीशपुर जैसे तुलनात्मक करीबी इलाकों में विद्रोह के समाचारों ने बगावत की सोच को और भी हवा दे दी. जैसे वहां विद्रोही सिपाहियों ने अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह जफ़र को पुनः राजा बनाने का प्रयास किया था कुछ इसी तर्ज पर यहाँ भी अंग्रेजों के हाथ से सत्ता लेकर अहोम राजकुमार कन्दर्पेश्वर सिंघा को सौंपने की योजना थी और इस योजना का मूल रणनीतिकार मनीराम बरुआ को ही माना जाता है. कहीं-कहीं इनका नाम मनीराम दीवान के रूप में भी दर्ज मिलता है.
इतिहासकार रजनीकांत गुप्ता के हवाले से जानकारी मिलती है कि 18 नवम्बर 1857 को चटगांव में विद्रोह के बाद हवलदार राजाबली खान के नेतृत्व में विद्रोही सिपाही त्रिपुरा से मणिपुर होते हुए असम की मौजूदा बराक घाटी की ओर बढ़े. उन्हें उम्मीद थी कि जनता भी उनके साथ आती जाएगी और स्थानीय राजा भी, लेकिन हुआ उल्टा. अव्वल तो जनता खुलकर साथ नहीं आ पाई और अधिकतर स्थानीय राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया. कई ने तो अंग्रेज अधिकारियों की अपील पर इन विद्रोही सिपाहियों से निपटने के लिए अपनी सेना तक भेज दी. इस दौरान सिलहट के प्रतापगढ़ और हैलाकांदी के लातू में विद्रोही सिपाहियों तथा अंग्रेज समर्थक सेनाओं के बीच भीषण संघर्ष हुआ और दोनों ही पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा. विद्रोही सिपाहियों की ताक़त का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लातू में सिलहट लाइट इन्फैंट्री के साथ हुई लड़ाई में उन्होंने इस इन्फैंट्री के मुखिया मेजर बियंग तक को मार गिराया था. ऐसा ही एक संघर्ष कछार-मणिपुर सीमा पर भी हुआ था जब तक़रीबन 200 विद्रोही सिपाहियों ने तब की सरकारी सेना के साथ दो घंटे तक मुकाबला किया. विद्रोही सैनिकों की संख्या को लेकर जरुर अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं. कहीं इसे 200 तो कहीं 300 बताया गया है.
एक और मजेदार तथ्य यह भी सामने आता है कि आमने-सामने के संघर्ष के दौरान विद्रोही सिपाहियों ने अंग्रेज समर्थक भारतीय या स्थानीय सिपाहियों को अपने साथ मिलाने के लिए उन्हें जाति-धर्म और खानपान तक का वास्ता देकर समझाने का प्रयास किया जब ये सैनिक, अंग्रेजों के प्रति अपनी वफ़ादारी छोड़ने को तैयार नहीं हुए तो उन्हें ‘क्रिश्चियन का कुत्ता’ जैसे संबोधनों से भी उकसाया गया. उत्तर भारत की क्रांति की तरह पूर्वोत्तर में सैनिकों का यह विद्रोह भी जनता और स्थानीय राजाओं का समर्थन नहीं मिलने के कारण असफल हो गया. इस दौरान अधिकतर विद्रोही सिपाही मारे गए. अंग्रेजों की क्रूरता का आलम यह था कि उन्होंने विद्रोही सिपाहियों को सिलचर तथा अन्य कई शहरों में सार्वजनिक रूप से पेड़ से लटकाकर फांसी दी ताकि भविष्य में कोई और यह हिमाकत करने की हिम्मत भी न कर सके. यदि कछार के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट आफ पुलिस कैप्टन स्टीवर्ड की रिपोर्ट पर भरोसा किया जाए तो कछार में घुसते समय 185 विद्रोही सिपाही मारे गए थे इनमें से 14 को फांसी दी गयी जबकि 57 गोली लगने से मारे गए. कुछ सिपाही मृत मिले, वहीँ सौ से ज्यादा को अन्य लोगों की मदद से मारा गया. उनके पास से सैंकड़ों हथियार और तक़रीबन 30 हजार रुपए भी मिले थे. ऐसा नहीं है इन सैनिकों को आम जनता से जरा भी सहयोग नहीं मिला बल्कि कई परिवारों ने विद्रोही सैनिकों को शरण/भोजन और जरुरी संसाधन तक उपलब्ध कराए. फिर भी यह जन समर्थन झाँसी की रानी या उनके जैसे अन्य अमर शहीदों को मिले समर्थन की तुलना में नगण्य था. यदि आम जनता उत्तर भारत की तरह पूर्वोत्तर में भी विद्रोही सिपाहियों के समर्थन में खुलकर सामने आ जाती तो शायद आज यहाँ की कहानी भी कुछ अलग होती और यह क्षेत्र बाकी देश से शायद इतना अलग थलग भी नहीं होता.  (तस्वीर:गूगल से साभार)

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...