मंगलवार, 8 मार्च 2016

हम तो रंग में भी भेदभाव पर उतर आए...!!!

हम तो रंग के मामले में भी भेदभाव पर उतारू हो गए. सदियों से महिलाओं के साथ भेदभाव करने की हमारी आदत बरकरार है तभी तो प्रकृति के रंगों के इन्द्रधनुष में से छः रंग हमने अधिकार पूर्वक अपने आप रख लिए और एक गुलाबी रंग महिलाओं के नाम कर दिया. मतलब फिर वही आधिपत्य भाव और एक रंग भी यह अहसान जताते हुए दे रहे हैं कि देखो हम कितना सम्मान करते हैं तुम्हारा. यदि वैज्ञानिक नज़रिए से देखा जाए तो गुलाबी तो मूल रंग भी नहीं है बल्कि यह भी लाल-सफेद के मेल से बना है अर्थात् जो इकलौता रंग महिलाओं को दे रहे हैं वह भी खालिस रंग नहीं मिलावटी है.  
दिलचस्प बात तो यह है कि यहाँ भी हमने इतना जरुरी नहीं समझा कि महिलाओं से एक बार पूछ लें कि उन्हें अपने लिए कौन सा रंग चाहिए मसलन बलिदानी केसरिया या खेतों में परिश्रम और उन्नति का प्रतीक हरा या ताक़त को प्रतिबिंबित करता लाल. चूँकि गुलाबी रंग में हमें अपना मर्दानापन, अपना रौब और अपनी ताक़त कुछ कम लगी तो हमने महिलाओं पर अहसान करते हुए यह रंग उन्हें थमा दिया. यदि इस रंग में भी हमें कहीं से ‘पुरुष-भाव’ नजर आता तो शायद इस पर भी हम कब्ज़ा किये रहते और महिलाओं पर सफेद/काला जैसा कोई ऐसा रंग थोप देते तो उन्हें उनकी हैसियत हमेशा याद दिलाता रहता कभी विधवा के रूप में तो कभी डायनी के तौर पर.
आज सब कुछ गुलाबी रंग में रंगा है..लोग गुलाबी, उनके कपडे गुलाबी, विज्ञापन गुलाबी, साज-सज्जा गुलाबी...गुलाबी रंग पर न्यौछावर होने के लिए एक से बढ़कर एक जतन..कोई भी यह दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहता कि वह महिलाओं का, उनके अधिकारों का, उनके सम्मान का कितना बड़ा हिमायती है. आज के दिन सब के सब रंगे सियार..चतुर सुजान और महिलाएं भी जन्म-जन्मान्तर से सीखते आ रही ‘संतोषी सदा सुखी’ की नसीहत के चलते यही सोचकर खुश हैं कि चलो एक रंग तो मिला. महिलामय दिखाने का यह आलम है कि कहीं कोई सरकार गुलाबी वस्त्र पहनने का फरमान जारी कर रही है तो किसी कम्पनी ने इसे ड्रेस कोड बना दिया और कोई होटल पूरा ही गुलाबी हो गया है.
यह सही है कि वक्त के साथ गुलाबी रंग रूमानियत का,प्रेम का, मधुरता का प्रतीक बन गया है. लेकिन क्या समाज में महिलाओं की पहचान या जरुरत बस इतनी ही है? क्या प्यार के नाम पर, उनकी स्वाभाविक मधुरता के कारण और हमारी रूमानियत की खुराक के तौर पर उन्हें इतने छोटे दायरे में सीमित कर देना उचित है? वैसे हम सालों से यही तो करते आ रहे हैं.महिलाओं को किसी न किसी नाम पर सीमाओं में ही तो बाँध रहे हैं इसलिए एक सीमा रंग की भी सही!!

महिलाएं, मानव सभ्यता के लिए कुदरत का सबसे कीमती सृजन हैं. उन्हें सदियों से हम बेड़ियों में तो बांधते आ रहे हैं पर रंगों में तो न बांधो. रंग तो शायद प्रकृति ने महिलाओं के लिए ही बनाएं हैं, खूबसूरत रंग बिलकुल महिलाओं के सौन्दर्य की तरह, सब कुछ सहकर भी प्रसन्नता से जीने की उनकी जीवटता को प्रदर्शित करते, बंधनों को तोड़ने की आकुलता को जाहिर करते और आगे बढ़ने की जिजीविषा को दर्शाते...तो फिर हम क्यों उन्हें एक रंग तक सीमित कर रहे हैं..खेलने दीजिये उन्हें रंगों से....खिलखिलाने दीजिये प्रकृति के प्रत्येक रंग में और रंगने दीजिए उन्हें विकास के हर रंग में...तभी तो आसमान में बिखरे सितारों की तरह उनकी चमक से हमारी-आपकी दुनिया जगमगाएगी वरना दीपावली के दियों की तरह उनकी आभा भी क्षणिक टिमटिमाकर फिर सालभर के लिए अँधेरे में खो जाएगी.      

मंगलवार, 1 मार्च 2016

भगवान कहीं आप भी तो मज़ाक नहीं कर रहे न.....

 “मैसेजबाज़ी कर लो, फीवर है, बोलना मुश्किल है”.....यही आखिरी संवाद था शाहिद भाई के साथ 2 फरवरी को और हम ठहरे निरे मूरख की उनकी बात ही नहीं समझ पाए. सोचा बीमार हैं तो क्यों परेशान करें उन्हें, बाद में बात कर लेंगे और ये सोच ही नहीं पाए कि यह ‘बाद’ अब कभी नहीं आएगा. क्या लिखूं..कैसे लिखूं ..आज वाकई हाथ कांप रहे हैं, दिमाग और हाथों के बीच कोई तालमेल ही नहीं बन रहा. पर यदि शाहिद भाई धुन के पक्के थे तो मैं भी उनसे काम ज़िद्दी नहीं हूँ. कुछ भी हो जाए उनके बारे में लिखूंगा जरुर और आज ही,फिर चाहे वाक्य न बने,व्याकरण गड़बड़ हो या फिर शब्द साथ छोड़ दे.
आसान नहीं है शाहिद अनवर होना...और न ही हम जैसे रोजी-रोटी,निजी स्वार्थ और अपने में सिमटे व्यक्ति उनकी तरह हो सकते हैं. उनकी तरह होना तो दूर शाहिद भाई के पदचिन्हों पर चल भी पाएं तो शायद जीवन धन्य हो जाएगा. क्या नहीं थे शाहिद भाई मेरे लिए....मेरे लिए ही हम सभी के लिए...हम सभी यानि सुदीप्त,चिदंबरम,नलिनी,सुप्रशांति,मनीषा,बुलबुल,अजीत, नीरज और राजीव..नाम लिखने बैठूं तो कागज़ कम पड़ जाएंगे पर शाहिद भाई के मुरीद/चाहने वालों/दीवानों के नाम अधूरे रह जाएंगे. बस एक बार उनसे कोई मिला तो समझो उसे ‘शाहिद संक्रमण’ हुआ और वह भी जीवन भर के लिए.
हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी के सिद्धहस्त शाहिद भाई क्या नहीं थे बड़े भाई/ अभिभावक/ दोस्त/ सहकर्मी/ लेखक/ रंगकर्मी/ शिक्षक/ दुनियाभर की सभी अच्छी बातों के अनुवादक/ जाति-धर्म से परे/ सब जानने वाले-समझने वाले फिर भी घमंड से कोसों दूर,सहज,सादगी पसंद,कोई दिखावा नहीं,कोई आडम्बर नहीं और हमेशा मदद को तत्पर. मददगार ऐसे की अपनी कार दूसरे को देकर खुद किराये के ऑटो में और कई बार पैदल घर जाने वाले, ठण्ड में अपना कोट ड्राइवर तक को पहनाकर चल देने वाले और लंच टाइम में अपना टिफिन यह कहकर दे देने वाले कि आज भूख नहीं है और फिर बाद में, चलो फल खाते हैं... यदि वे साथ हैं तो आप जेब में हाथ डालने की जुर्रत भी नहीं कर सकते और ज़ेब ही क्यों वे साथ हैं तो आप बेफिक्र-बेख़ौफ़ हो सकते हैं. सिलचर में दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर रहकर अपने बीबी-बच्चों को दिल्ली में बिना डर के छोड़ सकते हैं क्योंकि शाहिद भाई है न....और शाहिद भाई भी ऐसे कि पूनम भाभी-कासनी बिटिया को किसी ओर के भरोसे छोड़कर आपके बीबी-बच्चों के फिक्रमंद.
क्या इंसान थे शाहिद भाई..आपकी-मेरी-हमारी सोच से परे,बहुत आगे.....राह चलते ऑटो वाले को उसकी बीमार माँ के इलाज के लिए अपने एटीएम से 10 हज़ार रुपये दे देने वाले, वह भी बिना यह जाने कि उसकी बात सच है या झूठ या बिना उसका पता/फोन नंबर पूछे और फिर किसी साथी से उधार लेकर बिटिया के स्कूल की फीस भरते शाहिद भाई..समझाने पर कहते यार छोड़ो पैसा ही तो है पर इसी बहाने उसका अच्छे लोगों पर विस्वास कायम रहेगा.हम में से कौन और कितने यह काम कर सकते हैं...जेएनयू के दसियों विद्यार्थियों के पास ऐसे ही अनेक किस्से मिल जाएंगे...कितनों को वे कलाकार बना गए और कितनों को प्राध्यापक...दूसरों की हर परेशानी का रामबाण नुस्खा रखने वाले परन्तु अपने ही प्रति लापरवाह...वाकई आसान नहीं है शाहिद भाई होना.

आप सब में आदर्श थे लेकिन असमय साथ छोड़कर आपने अच्छा नहीं किया शाहिद भैया, आप क्या सोचते हैं आप हमसे दूर जा सकते हैं..आप मन लग जाएगा और आप मन लगा भी ले तो हम क्या करेंगे..किससे मांगेंगे सलाह, कौन संभालेगा हमें...काश कोई ये कह दे कि अरे संजीव कुछ नहीं हुआ शाहिद भाई ठीक हैं वो खबर झूठी थी..ऐसे ही किसी ने मज़ाक किया था...भगवान कहीं आप भी तो मज़ाक नहीं कर रहे न.....         

शनिवार, 2 जनवरी 2016

बिंदास,बेलौस,बेख़ौफ़...फिर भी अनुशासित जीवनशैली का पर्याय आइज़ोल


आइज़ोल...खूबसूरत लोगों का सुन्दर शहर...खूबसूरती केवल चेहरों की नहीं बल्कि व्यवहार की, साफ़ दिल की, शांति और सद्भाव की, अपने शहर को साफ़-स्वच्छ बनाने की जिजीविषा की और मदद को हमेशा तत्पर सहयोगी स्वभाव की. सड़कों पर बिंदास एसयूवी दौड़ाती युवतियां, स्कूटी पर फर्राटा भरती लड़कियां और पेट्रोल पम्प से लेकर हर छोटी-बड़ी दुकान को संभालती महिलाएं.. बेख़ौफ़, बिंदास, बिना किसी भेदभाव के सिगरेट के कश लगाती और नए दौर की बाइक पर खिलखिलाती मस्तीखोर युवा पीढ़ी....न कोई डर और न ही कोई बंदिश...जीने का कुछ अलहदा सा अंदाज़ और इसके बाद भी पूरी तरह से अनुशासित जीवनशैली.
उत्सवधर्मिता ऐसी की चार दिन बाद भी क्रिसमस और नए साल की थकान नहीं उतर सकी है इसलिए सरकारी दफ्तरों से लेकर बाज़ार तक चार दिन से बंद हैं. सड़कों/गलियों/मोहल्लों में क्रिसमस की छाप अब तक देखी जा सकती है.पूरा शहर रोशनी से नहाया हुआ है. जगह जगह मौजूद विशालकाय सांता,क्रिसमस ट्री और स्नो मेन, बहुरंगी लाइट से शराबोर चर्च और केक की मनमोहक खुशबू में डूबा पूरा शहर अब तक उनींदा सा है. लोग बस सुबह शाम चर्च में प्रार्थना और सेवा के लिए सज-धजकर निकलते हैं और बाकी समय पार्कों में समय काटते हैं. शहर में न तो कोई सिनेमाघर है और न ही कोई नामी मॉल,फिर भी मस्ती से समय काटते लोग.
फैशन का यह हाल है कि शायद समूचे पूर्वोत्तर में आइज़ोल का कोई मुकाबला नहीं है. साड़ी तो दूर सलवार कमीज में भी कोई महिला दिख जाए तो आपकी किस्मत वरना घुटनों तक चढ़े शानदार बूट,जींस,स्कर्ट और टॉप पहने लड़कियां और जींस-टीशर्ट में कसे लड़के यहाँ की पहचान हैं. ‘जियो और जीने दो’ को चरितार्थ करते हाथों में हाथ डाले बेलौस घूमते जोड़े आपस में ही खोये रहते हैं. मैदानी इलाकों के उलट न तो वे किसी को घूरते हैं और न ही उन्हें कोई घूरता है. यदि कोई मुड़कर देखते नज़र आ रहा है तो आप सीधे जाकर हिंदी में बात कर सकते हैं क्योंकि शर्तियाँ वह किसी मैदानी इलाक़े से ही होगा. हाँ पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह पान यहाँ की भी कमजोरी है.  
लगभग 175 वर्ग किलोमीटर में बसा यह शहर तक़रीबन 4 हजार फुट की ऊंचाई पर बसा है इसलिए तापमान आमतौर पर 10 से 30 डिग्री सेल्शियस के बीच बना रहता है. पूर्वोत्तर की पहचान बारिश यहाँ भी जमकर होती है. पत्रकारों के लिए तो यह इस लिहाज से स्वर्ग है कि महज तीन से चार किलोमीटर के दायरे में पूरी रिपोर्टिंग हो जाती है. मसलन राजभवन, मिज़ोरम विधानसभा, राज्य सरकार का सचिवालय, आकाशवाणी, पीआईबी और राज्य का जनसंपर्क कार्यालय जैसे राज्य और केंद्र सरकार के तमाम महत्वपूर्ण कार्यालय आसपास ही हैं. अगर आप पहाडी सड़कों के आदी हैं तो पैदल ही दिन में दो चक्कर लगा कर आ सकते हैं. वैसे भी यहाँ न तो समाचारों के लिए दूसरे प्रदेशों की राजधानियों की तरह मारामारी है और न ही उतनी गहमागहमी. पड़ोसी राज्य मणिपुर, नागालैंड और असम की तुलना में तो यह बिलकुल शांत हैं.
पहाड़ पर दूर दूर तक फैले रंग-बिरंगे और आकर्षक घर बरबस ही अपनी और ध्यान खींच लेते हैं. खासतौर पर हम जैसे मैदानी इलाकों से आने वाले लोगों के लिए तो ये घर भी किसी आकर्षण से कम नहीं हैं. वैसे तो आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में इसतरह के घर आम बात है लेकिन पूर्वोत्तर और फिर आइज़ोल में तो यहाँ की विरासत की छाप खुलकर नज़र आती है. रात में यह शहर ऐसा दिखाई देता है जैसे किसी ने पहाड़ पर रंग-बिरंगे सितारे बिखेर दिए हों. वक्त मिले तो एक बार आइज़ोल जरुर आइये क्योंकि महज तीन दिन में आप अपने देश में मौजूद इस ‘विदेशी शहर’ का लुत्फ़ उठा सकते हैं. वैसे यहाँ आने के लिए एक तरह के पासपोर्ट अर्थात ‘इनर लाइन परमिट’ की जरुरत पड़ती है इसलिए भी यहाँ की यात्रा और भी रोमांचक लगने लगती है.


अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...