शनिवार, 15 अगस्त 2015

महापुरुषों का अपमान: स्वतंत्रता को स्वेच्छाचारिता में बदलता सोशल मीडिया...!!!

यदि आप सोशल मीडिया के किसी भी प्रकार से जुड़े हैं तो शायद आपको भी आज़ादी के जश्न में मगरूर नई पीढ़ी द्वारा क़तर-व्योंत से तैयार मनगढ़ंत दस्तावेजों, आज़ादी के दौर की ख़बरों के नाम पर नए और छदम अखबारों, महापुरुषों के छिद्रान्वेषण और नए प्रतीक गढ़ने के प्रयासों (दुष्प्रयासों) से दो चार होना पड़ा होगा. ये कैसा जश्न है जिसमें सर्वस्वीकार्य आदर्शों को ढहाने और नए कंगूरे बनाने के लिए इतिहास से ही छेड़छाड़ की जा रही है? नए कंगूरे अवश्य रचे जाने चाहिए क्योंकि देश बस कुछ नायकों के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता. हर पीढ़ी को अपने दौर के नायक चाहिए लेकिन इसके लिए नया इतिहास रचने और ऐतिहासिक दस्तावेजों को खंगालने की जरुरत है न कि इतिहास को बदलने या विद्रूप करने की.  
इस वर्ष स्वाधीनता दिवस पर देशभक्ति के जिस भोंडे प्रदर्शन से सोशल मीडिया रंगा रहा है उससे तो अब हमें अपने स्वाधीनता दिवस को स्वतंत्रता दिवस कहना उपयुक्त लगने लगा है और शायद आने वाले सालों में इसे स्वतंत्रता दिवस के स्थान पर स्वेच्छाचारिता दिवस, उन्मुक्तता दिवस या निरंकुशता दिवस जैसे नए नामों से पुकारा जाना लगे. दरअसल मुझे तो सोशल मीडिया शब्द पर भी आपत्ति है क्योंकि यह भी सामाजिकता के नाम पर असामाजिकता ज्यादा फैला रहा है इसलिए इसे नान-सोशल मीडिया कहना ज्यादा बेहतर होगा. सोशल मीडिया ने जिन महापुरुषों का सबसे ज्यादा चरित्र हनन किया है उनमें सबसे पहला नाम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का है. बापू के आदर्श,त्याग, सत्यनिष्ठा, समझ, पल पल दी गयी कुर्बानियां और नैतिकता आज के दौर के इस मीडिया और उसके स्वयंभू पैरोकारों के लिए हास्य-विनोद का साधन बन गए हैं. पंद्रह अगस्त पर घोषित ड्राई डे (शराब निषेध दिवस) का मज़ाक बनाने के लिए बापू की तस्वीरों और उद्धरणों को जिस शर्मनाक तरीके से इस्तेमाल किया गया वह वाकई अफ़सोसनाक है और भविष्य के लिए गंभीर चेतावनी भी.
बापू का मखौल उड़ाने में मुन्नाभाई मार्का गांधीगिरी ने पहले ही कोई कसर नहीं छोड़ी थी पर अब तो हद है. वास्तव में यह चिंता का सबब भी है क्योंकि सोशल मीडिया पर बहुतायत में यत्र-तत्र बिखरी यह सामग्री भविष्य में गूगल सर्च के जरिये दुनिया भर में आसानी से उपलब्ध होगी और आने वाली पीढ़ियों के लिए बापू जैसे इतिहास के अमर प्रतीकों के बारे में भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी. यदि इसे समय पर रोका नहीं गया तो कुछ वैसे ही हादसे सामने आएँगे जैसे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में सर्च करने पर कभी अपराधी तो कभी भ्रष्ट जैसी अनहोनी जानकारियां सामने आती रही हैं. वो तो भला है कि वे अभी सत्ता में हैं इसलिए सरकार ने बाकायदा विरोध दर्ज कराया और गूगल को माफ़ी मांगकर इसतरह कि भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण जानकारियों को हटाना पड़ा लेकिन बापू की सुध कौन लेगा? महात्मा गाँधी तो इन दिनों बस नोट और वोट छापने का माध्यम बनकर रह गए हैं. दरअसल नोट पर उनकी तस्वीर लगा देने से नोट की वैध्यता कायम हो जाती है और वोट के लिए बापू के नाम का इस्तेमाल तो किसी से छिपा नहीं है.

दरअसल सोशल मीडिया एक दुधारू तलवार है. भले ही आज यह किसी के चरित्र हनन का औजार बन जाए लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वह भविष्य में किसी और को या यहाँ तक की स्वयं आपको या आपके अपनों को बख्श देगा! सोशल मीडिया के अनाम-गुमनाम सिपाहियों की स्थिति तो ‘बन्दर के हाथ में उस्तरा’ जैसी है. उन्हें तो बस इसका इस्तेमाल करना है फिर चाहे वह परायों को काटे या फिर अपनों को इसलिए सोशल मीडिया से यह आशा करना तो व्यर्थ है कि वह ’स्व-अनुशासन’ या ‘स्व-नियमन’ जैसा कोई कदम उठाएगा परन्तु सरकारी और खासतौर पर गैर-सरकारी स्तर पर इसके नियमन और इस पर नियंत्रण के लिए समय रहते कुछ कदम उठाने जरुरी हैं वरना कभी ऐसी भी स्थिति आ सकती है जब हमें इस मीडिया द्वारा सृजित नए इतिहास बोध के कारण शर्मिंदा होना पड़े.  

बुधवार, 5 अगस्त 2015

जब ‘हेलो’ को समझ लिया ख़तरनाक उड़नतश्तरी और नई विपदा

किसी के लिए वह खतरनाक उड़नतश्तरी थी जिसमें से ‘पीके’ टाइप हिंदी-अंग्रेजी फिल्मों से दिखाए गए दूसरे ग्रह के वासी(एलियन) उतरेंगे और धरती पर हमला कर सब कुछ बर्बाद कर चले जाएंगे तो किसी की नजर में यह 1980 के दशक में चर्चित स्काईलैब जैसी कोई घटना घटित होने की आशंका थी. पहले ही जादू-टोनों, डायन और तांत्रिकों के इलाक़े के तौर पर कुख्यात असम में ऐसी किसी भी विचित्र आकृति के दिखने से भय,अफ़वाहों और चर्चाओं का दौर तो शुरू होना ही था. वैसे भी इन दिनों यहाँ राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन(एनआरसी) का काम चल रहा है और बड़ी संख्या में दशकों से यहाँ रह रहे गैर असमिया लोग सरकार के रवैये से नाराज़ चल रहे हैं इसलिए कुछ लोग इसे राज्य सरकार की साज़िश भी मान बैठे. उन्हें लगा कि सरकार ने उन्हें डराने और उन पर नज़र रखने के लिए ड्रोन टाइप कोई उपकरण भेजा है. 
दरअसल हुआ यह था कि पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम के दक्षिणी हिस्से अर्थात् बराक घाटी के लोगों को बीते दिनों एक दुर्लभ और अदभुत खगोलीय घटना से रूबरू होने का अवसर मिला. संयोग से घटने वाली इस घटना में सूर्य के चारों ओर एक गोलाकार इन्द्रधनुषी चक्र नजर आया. बस फिर क्या था पूरे इलाक़े में इसे देखकर अनुमानों का बाज़ार गर्म हो गया. जैसे ही सूर्य के आसपास इस रंगीन आभामंडल का निर्माण हुआ यहाँ लोगों में खलबली मच गयी. नई आसमानी आफ़त,ग्रहों का मिलना और और प्राकृतिक प्रकोप जैसे अवैज्ञानिक अनुमानों ने लोगों को घरों में कैद कर दिया ताकि किसी भी विपदा से बच सकें लेकिन इस डर या अज्ञानता के कारण वे कभी कभार घटने वाले प्रकृति के इस अदभुत नज़ारे या यों कहें कि जीवन के स्मरणीय अनुभव से रूबरू होने से वंचित रह गए. हालाँकि, ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी थी जिन्होंने न केवल इस दुर्लभ खगोलीय घटना को देखा बल्कि अपने कैमरों में कैद कर हमेशा के लिए स्मृतियों में संजो लिया.
वैज्ञानिकों के मुताबिक न तो यह उड़न तश्तरी थी और न ही कोई आसमानी आपदा बल्कि यह तो एक ऐसा नजारा था तो सामान्य रूप से देखने को नहीं मिलता. वैज्ञानिकों के मुताबिक सूर्य के आसपास इसतरह की इन्द्रधनुषी गोल आकृति बनने को विज्ञान की भाषा में ‘हेलो’ या आभामंडल के नाम से जाना जाता है. ‘हेलो’ की रचना सूर्य के साथ साथ चंद्रमा के आसपास भी हो सकती है. ‘हेलो’ बनने का कारण पतले और घने बादलों का अत्यधिक ऊंचाई पर जमा होना है. इन बादलों में बर्फ़ के छोटे छोटे लाखों कण समाहित रहते हैं जिनसे सूर्य की किरणें अपवर्तित अथवा विभक्त होकर इसतरह के खूबसूरत रंगीन चक्र का निर्माण करती हैं. ‘हेलो’ बनने का एक अर्थ यह भी है कि उस इलाक़े में जल्द ही भारी बारिश होने की सम्भावना है. वैसे भी पूर्वोत्तर के राज्यों में इसप्रकार की बारिश होना सामान्य बात है. वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि ‘हेलो’ आमतौर पर नज़र आने वाले इन्द्रधनुष से बिल्कुल अलग होते हैं क्योंकि इन्द्रधनुष की रचना बादलों में समायी पानी की बूंदों के कारण होती है जबकि ‘हेलो’ कुछ खास प्रकार के बादलों में मौजूद बर्फ़ के लाखों कणों के कारण बनता है. बहरहाल, हेलो ने कुछ समय की अपनी मौजूदगी से ही असम को दहशत चर्चा में ला दिया. 

बुधवार, 29 जुलाई 2015

बिना वीसा-पासपोर्ट के भारत आए हाथी, अब अदालत में मगजमारी

हम इसे शरद जोशी की बहुचर्चित कृति ‘अंधों का हाथी’ या फिर सैय्यद अख्तर मिर्ज़ा की विख्यात फिल्म ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’ से जोड़कर ‘अंधों का हाथी अदालत में हाज़िर हो’ जैसा कोई नाम दे सकते हैं. लेकिन यह घटना पूरी तरह से सत्य है और इसमें कोई कथात्मक या रचनात्मक मिलावट भी नहीं है. हाँ, ‘वीर-जारा’ जैसी फिल्मों की तरह इसमें भी दो देश जुड़े हैं. यहाँ भारत तो है ही, साथ में परम्परागत रूप से पकिस्तान न होकर उसके स्थान पर बंगलादेश है. दरअसल मामला यह है कि दो हाथियों को अपने सही मालिक की तलाश में इन दिनों अदालत के चक्कर काटने पड़ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में सीधे तौर पर हाथियों की कोई गलती नहीं है लेकिन उनके स्वामित्व को लेकर शुरुआत में दो और अब तक छह दावेदारों के सामने आ जाने से मामला दिन-प्रतिदिन पेचीदा होता जा रहा है और और जब पेशी नहीं होती तो वन विभाग को इनकी ख़ातिरदारी करनी पड रही है. हाथियों की भारी भरकम खुराक के कारण उनकी मेजबानी वन विभाग पर भारी पड़ रही है.
इस रोचक दास्ताँ की सिलसिलेवार चर्चा करें तो यह किस्सा पूर्वोत्तर में असम के एक छोटे से जिले हैलाकांदी का है. यह इलाका गुवाहाटी से करीब 400 किमी दूर है. यहाँ की स्थानीय अदालत में महीने भर से इन लावारिस हाथियों के स्वामित्व का यह मामला चल रहा है. प्रारंभ में बंगलादेश के एक व्यक्ति ने दावा किया है कि यह हाथी उसके हैं जो सीमा पार कर यहाँ तक आ गए. वहीँ हैलाकांदी जिले के एक व्यक्ति ने भी इन पर अपना दावा ठोंक दिया. वैसे अब तक दावेदारों की संख्या बढ़ते हुए छह तक पहुँच गयी है. बंगलादेश के व्यक्ति का कहना है कि ये हाथी वहां के मौलवी बाज़ार जिले के हैं और पता नहीं कैसे मौलवी बाज़ार से सीमापार कर भारत के सीमावर्ती जिले करीमगंज होते हुए हैलाकांदी तक जा पहुंचे. भौगोलिक दृष्टि से इन इलाकों की दूरी तक़रीबन 60-70 किलोमीटर है और बीच में नदी, पहाड़ और जंगल जैसी सामान्य बाधाएं भी हैं.
बंगलादेश के मौलवी बाज़ार तथा भारत के करीमगंज के बीच सरहद भी है जिसपर सदैव पहरा रहता है. अब हाथी कोई चींटी या अदृश्य चीज तो है नहीं कि इतनी दूरी तय करने के बाद भी किसी को नजर न आए लेकिन बंगलादेश के व्यक्ति का कहना है कि उसने हाथियों के गायब होने के साथ ही स्थानीय थाने में रपट लिखा दी थी और उसे अपने एक भारतीय रिश्तेदार से हाथियों के हैलाकांदी में होने का पता चला. उसके पास हाथियों पर मालिकाना हक़ से संबंधित कागजात भी हैं. इधर हैलाकांदी के व्यक्ति भी कागजात होने का दावा कर रहे हैं इसलिए अदालत ने कागज़ों की जांच और फैसला होने तक हाथियों को स्थानीय वन विभाग की देखरेख में सौंप दिया. एक और दिलचस्प पहलू यह है कि चूँकि हाथी अदालत के कटघरे में तो खड़े हो नहीं सकते इसलिए अब तक जज साहब को ही कोर्ट के बाहर आकर खुली अदालत लगानी पड़ी है.

वन विभाग के लिए तो यह ‘यहाँ कुआं वहां खाई’ वाला मसला है. विभाग की मुश्किल यह है कि बिन बुलाए दो-दो हाथियों की आवभगत की ज़िम्मेदारी उसके गले आन पड़ी है. विभाग अदालत का आदेश मानने से इंकार नहीं कर सकता और इन शाही मेहमानों की आवभगत में अपने सालभर के बजट को महीने भर में भी नहीं उडा सकता इसलिए विभाग भी जल्द से जल्द इन भारी भरकम मेहमानों से छुटकारा पाना चाहता है परन्तु हाथियों पर मालिकाना हक़ जताने वालों की बढती संख्या ने इस मामले को पेचीदा बना दिया है और इसके आसानी से हल होने की सम्भावना नजर नहीं आ रही. वैसे भी कौन चाहेगा कि हाथ आई लक्ष्मी उसके हाथ से जाए इसलिए दाव-प्रतिदाव का खेल जारी है तब तक हाथियों की तो मौज है क्योंकि बिना परिश्रम आवभगत जो हो रही है. 

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...