रविवार, 18 अगस्त 2013

क्या प्याज इतनी जरुरी है हमारे जीवन के लिए.....?


क्या प्याज इतनी ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकती है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी गुजारा नहीं कर सकते? तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों? और यदि एसा है तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही?
मेरी समझ में मुंह को बदबूदार बनाने वाली प्याज न तो जीवन के लिए अत्यावश्यक ऊर्जा है, न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम ही न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम के घाव भी भरने लगे हैं.हर छोटी सी समस्या को विकराल बनाने में कुशल हमारे न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र अब घोटालों के गडबडझाले को भूल गए हैं और खुलकर महंगाई की मार्केटिंग कर रहे है.प्याज की बढती कीमतों को वे दूरदराज और यहाँ तक की प्याज उत्पादक राज्यों में ले जाकर वहां भी इसकी  कीमत बढ़ा रहे हैं. देश और खासकर दिल्ली में बढते अपराधों एवं समस्याओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मीडिया के लिए प्याज हो गयी है.अब वे सुबह से शाम तक “राग प्याजअलाप रहे हैं. मीडिया के दबाव में मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सफाई देते नहीं थक रहे हैं. दिल्ली में तो मुख्यमंत्री को सस्ती(पचास रुपये किलो) प्याज बेचनी पड़ रही है. देश में इतनी अफरा-तफरी तो किसानों की आत्महत्या, जमीन घोटालों और पकिस्तान-चीन के उकसावे में भी नहीं मची जितनी प्याज की कीमतों को लेकर मच रही है गोया प्याज न हुई ‘संजीवनी’ हो गई.
शायद यह हमारी जल्दबाजी का ही नतीजा है कि जिस देश में करोड़ों लोग डायबिटीज(मधुमेह) की बीमारी का शिकार हों और पर्याप्त इलाज के अभाव में तिल-तिलकर दम तोड़ रहे हो उसी देश में चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं. कुछ इसीतरह ब्लडप्रेशर(रक्तचाप) के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे रहने वाले हम भारतीय, नमक की जरा सी कमी आ जाने पर नासमझों जैसी हरकत करने लगते हैं और अपने घरों में कई गुना दामों पर भी खरीदकर नमक का ढेर लगा लेते हैं जबकि हकीकत यह है कि ज्यादा नमक खाने से लोगों को मरते तो सुना है पर कम नमक खाकर कोई नहीं मरता और वैसे भी तीन तरफ़ समुद्र से घिरे देश में कभी नमक की कमी हो सकती है? कुछ इसीतरह की स्थिति एक बार पहले भी नज़र आई थी जब हमने बूँद-बूँद दूध के लिए तरसते अपने देश के बच्चों को भुलाकर भगवान गणेश को दूध पिलाने के नाम पर देश भर में लाखों लीटर दूध व्यर्थ बहा दिया था.
  प्याज के बारे में जब मैंने इन्टरनेट खंगाला तो कई अहम जानकारियां सामने आई मसलन प्याज को आयुर्वेद में राजसिक और तामसिक गुण का मानते हुए खाने की मनाही की गयी है क्योंकि यह हमारे तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित कर हमें सच्चाई के मार्ग से भटकाता है.यही कारण है कि ज्यादातर हिन्दू परिवारों में प्याज या इससे बने व्यंजन भगवान को भोग में नहीं चढ़ाए जाते. जिस प्याज को हम अपने आराध्य देव को नहीं खिला सकते उसे खरीदने के लिए इतनी बेताबी क्यों? एक पश्चिमी विद्वान का कहना है कि प्याज हमारी जीवन ऊर्जा को घटाती है. यही नहीं प्याज में बैक्टीरिया को खींचने की इतनी जबरदस्त क्षमता होती है कि यदि कटी कच्ची प्याज को दिनभर खुले में तो क्या फ्रिज में भी रख दिया जाए तो यह इतनी जहरीली हो जाती है कि हमारे पेट का बैंड बजा सकती है.
सोचिये, हम एकजुट होकर अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल सकते हैं,भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं पर मामूली सी प्याज को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकते और वह भी महज चंद दिनों के लिए?  देश में गरीबी,अशिक्षा,बीमारी,भ्रष्टाचार,क़ानून-व्यवस्था,कन्या भ्रूण हत्या,दहेज,बाल विवाह जैसी ढेरों समस्याएँ हैं इसलिए प्याज के लिए आंसू बहाना छोड़िये और यह साबित कर दीजिए कि हम प्याज के बिना भी काम चला सकते हैं.....तो नेक काम की शुरुआत आज नहीं बल्कि अभी से क्यों नहीं.

शनिवार, 3 अगस्त 2013

यह प्यार है या फिर क्षणिक वासना का आवेग...!

ये कैसा प्यार है जो अपने सबसे आत्मीय व्यक्ति पर कुल्हाड़ी चलाने का दुस्साहस करने दे? या दुनिया में सबसे प्रिय लगने वाले चेहरे को ही तेज़ाब से विकृत बना दे या फिर जरा सा मनमुटाव होने पर गोली मारकर अपने प्रेमी की जान ले लेने की हिम्मत दे दे? यह प्यार हो ही नहीं सकता.यह तो प्यार के नाम पर छलावा है,दैहिक आकर्षण है या फिर मृग-मरीचिका है. प्यार तो सब-कुछ देने का नाम है, सर्वत्र न्यौछावर कर देने  और हँसते हँसते अपना सब कुछ लुटा देने का नाम है.प्यार बलिदान है,अपने प्रेमी पर खुशी-खुशी कुर्बान हो जाना है और खुद फ़ना होकर प्रेमी की झोली को खुशियों से भर देने का नाम है. यह कैसा प्यार है जो साल दो साल साथ रहकर भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं जमने देता. प्यार तो पहली मुलाक़ात में एक दूसरे को अपने रंग में रंग देता है और फिर कुछ पाने नहीं बल्कि खोने और अपने प्रेमी पर तन-मन-धन लुटा देने की चाहत बढ़ जाती है.प्यार के रंग में रंगे के बाद प्रेमी की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं रह जाता.
मजनूं ने तो लैला पर कभी चाकू-छुरी नहीं चलाई? न ही कभी तेज़ाब फेंका? उलटे जब मजनूं से जमाना रुसवा हुआ तो लैला ढाल बन गई,पत्थरों की बौछार अपने कोमल बदन पर सह गयी.तभी तो उनका नाम इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज है.इसीतरह न ही कभी महिबाल को सोहिनी पर और न ही हीर-राँझा को एक दूसरे पर कभी शक हुआ और न ही एक-दूसरे को मरने मारने की इच्छा हुई. वे तो बस एक दूसरे पर मर मिटने को तैयार रहते थे.एक दूसरे की खुशी के लिए अपना सुख त्यागने को तत्पर रहते थे. वे कभी एक दूसरे के साथ मुकाबले,प्रतिस्पर्धा,ईर्ष्या,द्वेष और जलन में नहीं पड़े. यह भी उस दौर की बात है जब प्रेमी-प्रेमिका का मिलना-साथ रहना तो दूर एक झलक पा जाना ही किस्मत की बात होती थी.तमाम बंदिशें,बाधाएं,रुकावटें,सामाजिक-सांस्कृतिक बेड़ियों के बाद भी वे एक दूसरे पर कुर्बान हो जाते थे. मीरा ने कृष्ण के प्रेम में हँसते-हँसते जहर का प्याला पी लिया था. प्रेमी का अर्थ ही है एक-दूसरे के हो जाना,एक-दूसरे में खो जाना,एक-दूसरे पर जान देना और दो शरीर एक जान बन जाना, न कि एक दूसरे की जान लेना. प्रेम होता ही ऐसा है जिसमें अपने प्रियजन के सम्बन्ध में सवाल-जवाब की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. आज के आधुनिक दौर में जब युवाओं को एकदूसरे के साथ दोस्ती बढ़ाने,घूमने-फिरने,साथ रहने और सारी सीमाओं से परे जाकर एक- दूसरे के हो जाने की छूट हासिल है उसके बाद भी उनमें अविश्वास का यह हाल है कि जरा सी नाराजगी जानलेवा बन जाती है, किसी और के साथ बात करते देख लेना ही  मरने-मारने का कारण बन जाता है. जिससे आप सबसे ज्यादा प्यार करने हैं उस पर तेज़ाब फेंकने की अनुमति आपका दिल कैसे दे सकता है फिर आप चाहे उससे लाख नाराज हो.अब तो लगता है कि इंस्टेंट लवने प्यार की गहराई को वासना में और अपने प्रेमी पर मर मिटने की भावना को मरने-मारने के हिंसक रूप में तब्दील कर दिया है. शिक्षा के सबसे अव्वल मंदिरों में ज्ञान के उच्चतम स्तर पर बैठे युवाओं का यह हाल है कि वे प्रेम के ककहरे को भी नहीं समझ पा रहे और क्षणिक और दैहिक आकर्षण को प्यार समझकर अपना और अपने साथी का जीवन बर्बाद कर रहे हैं. शायद यही कारण है कि इन दिनों समाज में विवाह से ज्यादा तलाक़ और प्रेम से ज्यादा हिंसा बढ़ रही है.मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि समाज एवं परिवार से कटे आत्मकेंद्रित युवाओं में किसी को पाने की इच्छा इतनी प्रबल हो गयी है कि वे इसके लिए बर्बाद होने या बर्बाद करने से भी पीछे नहीं हटते. क्षणिक सुख की यह ज़िद समाज में नैतिक पतन का कारण बन रही है और इससे प्रेम जैसा पवित्र,पावन और संसार का सबसे खूबसूरत रिश्ता भी कलंकित हो रहा है. (चित्र सौजन्य:fanpop.com)  


गुरुवार, 25 जुलाई 2013

हे भगवान,यह क्या सिखा रही है मेट्रो ट्रेन हमें...?

दिल्ली की जीवन रेखा बन चुकी नए जमाने की मेट्रो ट्रेन में चढ़ते ही एक सन्देश सुनाई देता है इस सन्देश में यात्रियों को सलाह दी जाती है कि किसी भी अनजान व्यक्ति से दोस्ती न करे. जब जब भी मैं यह लाइन सुनता हूँ मेरे दिमाग में यही एक ख्याल आता है कि  क्या नए जमाने की मेट्रो ट्रेन हमें दोस्ती का दायरा सीमित रखने का ज्ञान दे रही है? सीधी और सामान्य समझ तो यही कहती है कि यदि हम अपने साथ यात्रा करने वाले सह यात्रियों या अनजान लोगों से जान-पहचान नहीं बढ़ाएंगे तो फिर परिचय का दायरा कैसे बढ़ेगा और जब परिचय का विस्तार नहीं होगा तो दोस्ती होने का तो सवाल ही नहीं है. तो क्या हमें कूप-मंडूक होकर रह जाना चाहिए? या जितने भी दो-चार दोस्त हैं अपनी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द समेट लेनी चाहिए. वैसे भी आभाषी (वर्चुअल) रिश्तों के मौजूदा दौर में मेट्रो क्या, किसी से भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह आपको यही सलाह दे कि आप कम से कम लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ और आभाषी दुनिया में अधिक से अधिक समय बिताओ.इससे भले ही घर-परिवार टूट रहे हों परन्तु वेबसाइटों.इंटरनेट और इनके सहारे धंधा करने वालों की तो मौज है.

  अभी तक रेलवे द्वारा संचालित ट्रेनों में और स्टेशनों पर यह जरुर सुनने/पढने को मिलता था कि किसी अनजान व्यक्ति के हाथ से कुछ न खाए.यहाँ तक तो बात फिर भी समझ में आती है कि जिसे आप जानते नहीं है उसके हाथ से कुछ भी खाना-पीना व्यक्तिगत सुरक्षा के लिहाज से उचित नहीं है. ट्रेनों में ज़हरखुरानी या नशीले पदार्थ खिलाकर आम यात्रियों को लूटने की बढ़ती घटनाएं रेलवे की इस नसीहत को उचित भी ठहराती हैं लेकिन किसी से मिले नहीं,मेल-जोल न बढ़ाएं और दोस्ती ही न करें. भला यह कैसी बात हुई? यह तो भारतीय संस्कृति की भावनाओं के खिलाफ उल्टी गंगा बहाने वाली बात हुई. कहाँ तो हमारी संस्कृति मिल-जुलकर रहने,भाईचारे और पंचशील के सिद्धांत की बात करती है,वहीं नए ज़माने की मेट्रो ट्रेन हमें अपने ही लोगों से दूर जाने का पाठ पढ़ा रही है.वैसे दिल्ली मेट्रो कई उलटबांसियों का शिकार है.मसलन मेट्रो में चढ़ते ही सन्देश गूंजने लगता है कि कृपया बुजुर्गों,विकलांगों और महिलाओं को सीट दें,लेकिन उस समय सीट पर बैठकर मोबाइल के दीन दुनिया से परे खिलवाड़ में डूबे लोग आँख बन्द कर सोने का बहाना करके या फिर कानों में ईयर प्लग ठूंसकर इसे आमतौर पर अनसुना करते रहते हैं. इसीतरह एक अन्य सन्देश में आगाह किया जाता है कि मेट्रो ट्रेन में खाना-पीना वर्जित है,परन्तु लोग इस निर्देश को ताक पर रखकर पूरी ठसक के साथ चिप्स,बर्गर और पता नहीं क्या क्या अपने पेट में उतारते रहते हैं. इस मामले में सबसे आगे हमारी नई पीढ़ी और विज्ञापनों की भाषा में ‘जनरेशन एक्स’ है. इस पीढ़ी ने तो मानो  सारे निर्देशों,सलाह और सुझावों को रद्दी की टोकरी में डालने का फैसला कर रखा है तभी तो मेट्रो की बार-बार समझाइश के बाद भी वे ट्रेन के फर्श पर बैठकर मनमानी करते हैं,मेट्रो में प्रतिबन्ध के बाद भी जमकर एक दूसरे के फोटो खींचते हैं,वीडियो बनाते हैं ,जोर से गाना सुनते-सुनाते हैं भले ही आस-पास के लोग परेशान हो जाएँ और अब तो उनके कुछ कारनामे न्यूज़ चैनलों और अश्लील वेबसाइटों तक पर सुर्ख़ियों में हैं.ऐसे में दोस्ती,रिश्ते-नातों और भावनाओं की क्या अहमियत रह जाती है? शायद मेट्रो भी यही कहना चाहती है कि बस अपना उल्लू सीधा करो और सामुदायिक को दरकिनार कर आगे बढते रहो.   

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...