बुधवार, 22 दिसंबर 2010

क्या हम कुछ दिन प्याज खाना बंद नहीं कर सकते..?

क्या प्याज इतना ज़रुरी है कि वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डाल सकता है? प्याज के बिना हम हफ्ते भर भी काम नहीं चला सकते? यदि हाँ तो फिर प्याज के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों?और यदि नहीं तो फिर व्रत/उपवास/रोज़ा/फास्ट या आत्मसंयम का दिखावा क्यों? कहीं हमारी यह प्याज-लोलुपता ही तो इसके दामों को आसमान पर नहीं ले जा रही?
मेरी समझ में प्याज न तो ऑक्सीजन है,न हवा है, न पानी है और न ही भगवान/खुदा/गाड है कि इसके बिना हमारा काम न चले. क्या कोई भी सब्ज़ी इतनी अपरिहार्य हो सकती है कि वह हमें ही खाने लगे और हम रोते-पीटते उसके शिकार बनते रहे? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कुछ दिन के लिए हम प्याज का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते? अपने आप जमाखोरों/कालाबाजारियों के होश ठिकाने आ जायेंगे और इसके साथ ही प्याज की कीमतें भी. बस हमें ज़रा सा साहस दिखाना होगा और वैसे भी प्याज जैसी छोटी-मोटी वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण के लिए सरकार का मुंह ताकना कहाँ की समझदारी है. अगर आप ध्यान से देखें तो देश में प्याज के दाम बढ़ने के साथ ही तमाम राष्ट्रीय मुद्दे पीछे छूटने लगे हैं. भ्रष्टाचार के दाग फीके पड़ने लगे हैं और टू-जी स्पेक्ट्रम के घाव भी भरने लगे हैं.हर छोटी सी समस्या को विकराल बनाने में कुशल हमारे न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र अब राष्ट्रमंडल खेलों के गडबडझाले को भूल गए हैं और न ही उनको रुचिका की याद आ रही है.दिल्ली के बढते अपराधों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण उनके लिए प्याज हो गयी है.अब वे सुबह से शाम तक”राग प्याज” गा रहे हैं.मीडिया के दबाव में प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सफाई देते नहीं थक रहे हैं.देश में इतनी अफरा-तफरी तो किसानों की आत्महत्या,जमीन घोटालों और अमेरिका-चीन के दबाव में भी नहीं मची जितनी प्याज की कीमतों को लेकर मच रही है गोया प्याज न हुई संजीवनी हो गई.
शायद यह हमारी जल्दबाजी का ही नतीजा है कि जिस देश में करोड़ों लोग डायबिटीज(मधुमेह) की बीमारी का शिकार हों और पर्याप्त इलाज के अभाव में तिल-तिलकर दम तोड़ रहे हो उसी देश में चीनी की कीमतें आसमान छू रही हैं. कुछ इसीतरह ब्लडप्रेशर(रक्तचाप) के मामले में दुनिया भर में सबसे आगे रहने वाले भारतीय नमक की जरा सी कमी आ जाने पर नासमझों जैसी हरकत करने लगते हैं और अपने घरों में कई गुना दामों पर भी खरीदकर नमक का ढेर लगा लेते हैं.जबकि हकीकत यह है कि ज्यादा नमक खाने से लोगों को मरते तो सुना है पर कम नमक खाकर कोई नहीं मरा और वैसे भी तीन तरफ़ से समुद्र से घिरे देश में कभी नमक की कमी हो सकती है. कुछ इसीतरह की स्थिति एक बार पहले भी नज़र आई थी जब हमने बूँद-बूँद दूध के लिए तरसते अपने देश के बच्चों को भुलाकर गणेशजी को दूध पिलाने के नाम पर देश भर में लाखों लीटर दूध व्यर्थ बहा दिया था.
सोचिये हम एकजुट होकर अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल सकते हैं,आपातकाल के खिलाफ हथियार उठा सकते हैं पर मामूली प्याज को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकते और वह भी चंद दिनों के लिए?साथियों, देश में गरीबी,अशिक्षा,बीमारी,भ्रष्टाचार,क़ानून-व्यवस्था,कन्या भ्रूण हत्या,दहेज,बाल विवाह जैसी ढेरों समस्याएँ हैं इसलिए प्याज के लिए आंसू बहाना छोड़िये और यह साबित कर दीजिए कि हम तो प्याज के बिना भी काम चला सकते हैं.....तो शुरुआत आज नहीं बल्कि अभी से ही...

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

आओ सब मिलकर कहें कार्ला ब्रूनी हाय-हाय

फ़्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की माडल पत्नी कार्ला ब्रूनी अपने कार्यों से ज्यादा अपनी अदाओं और कारगुजारियों के लिए सुर्ख़ियों में रहती हैं.कभी अपने कपड़ों को लेकर तो कभी नग्न पेंटिंग के लिए ख़बरों में रही कार्ला ने अपने एक बयान से भारत सरकार और कई स्वयंसेवी संगठनों की सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया है.कार्ला ने आगरा के पास स्थित फतेहपुर सीकरी में एक मशहूर दरगाह पर अपने लिए बेटे की मन्नत मांगी.अपने लिए दुआ करना या कोई ख्वाहिश रखने में कोई बुरे नहीं है पर उस इच्छा को सार्वजनिक करना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता.हमारा देश सदियों से “पुत्र-मोह” का शिकार है और इसका खामियाजा जन्मी-अजन्मी बेटियां सालों से भुगत रही हैं.कभी दूध में डुबोकर तो कभी अफीम चटाकर उनकी जान ली जाती है.अब तो आधुनिक चिकित्सा खोजों ने बेटियों को मारना और भी आसान बना दिया है.अब तो कोख में ही बेटियों की समाधि बना देना आम बात हो गयी है.
सरकार के और सरकार से ज्यादा स्वयंसेवी संगठनों के अनथक प्रयासों के फलस्वरूप बेटियों को समाज में सम्मान जनक स्थान मिलने की सम्भावना नज़र आने लगी थी.पुत्र-मोह की बेड़ियाँ टूटने लगी थीं और बेटियां जन्म लेने लगी थी.समाज की इस सोच को बदलने में दशकों लग गए पर कार्ला ब्रूनी और उनके शब्दों पर न्योछावर हमारे मीडिया ने वर्षों के किये कराए पर पानी फेर दिया.अरे जब फ़्रांस जैसे विकसित देश की प्रथम महिला अपने लिए पुत्र की कामना कर सकती है और इसके लिए अपनी परम्पराओं से हटकर दरगाह पर मत्था टेककर मन्नत मांग सकती है तो फिर आम भारतियों का तो ये हक बन जाता है कि वे पुत्र की कामना में अपनी पत्नी को कारखाने में बदल दे और पुत्र पैदा करके ही दम ले फिर चाहे उसके पहले आधा दर्जन बेतिया पैदा करनी पड़े या फिर कोख में ही मारनी पड़े? वैसे कार्ला उसी फ़्रांस की प्रथम महिला हैं जहाँ बुरके को महिलाओं की आज़ादी के खिलाफ मन जाता है और उसपर सरकार बकायदा कानून बनाकर प्रतिबन्ध लगाती है.एक तरफ़ कार्ला इतनी प्रगतिशील नज़र आती हैं कि बुर्के के खिलाफ कड़ी हो जाती हैं और वाही दूसरी ओर दरगाह पर बेटे के लिए मन्नत मांगती हैं?दीर भी हम,हमारा मीडिया,सरकार और तमाम बुद्धिजीवी उनकी जय-जयकार में जुटे हैं.किसी ने यह कहने की हिम्मत नहीं दिखाई कि कार्ला आप हमारी बरसों की मेहनत पर पानी क्यों फेर रही हैं? आप को तो शायद बेटा मिल जायेगा पर हमारी हजारों बेटियों की जान जाने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
नोट:दरगाह का नाम जान बूझकर नहीं दिया ताकि हमारे पुत्र-लोलुप लोग वहां लाईन न लगा सके.

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

सोलह साल में आत्महत्या या फिर ऑनर किलिंग

    जन्म:1994                                                                                                           मौत:2010

मृत्यु का कारण: परिवार वालों के मुताबिक ऑनर किलिंग अर्थात दबंगों ने असमय गला घोंट कर मार डाला. वहीँ दूसरे पक्ष का कहना है कि बढ़ती आवारागर्दी और लापरवाही ने जान ले ली.
              सोलह साल की उम्र बड़ी कमसिन होती है.इस उम्र में जवानी और रवानगी आती है,सुनहरे सपने बुनने की शुरुआत होती है परन्तु यदि इसी आयु में दुनिया देखने के स्थान पर दुनिया छोड़ना पड़ जाये तो इससे ज़्यादा दुखद स्थिति और क्या हो सकती है?लेकिन यह हुआ और सार्वजनिक रूप से हुआ,सबकी आँखों के सामने हुआ और सब लोग इस असमय मौत पर भी दुखी होने की बजाए खुशियाँ मानते रहे दरअसल उसके काम ही ऐसे थे कि अधिकतर लोग उसके मरने की दुआ मनाने लगे थे. कहा जाता है कि यदि कोई भी दुखी व्यक्ति दिल से बददुआ दे दे तो वह असर दिखाती है और जब एक साथ हज़ारों लोग किसी के मरने की दुआ करने लगे तो फिर उसे तो भगवान भी नहीं बचा सकता.यह बात अलग है कि मरने वाली के सम्बन्धी इसे ऑनर किलिंग का मामला बता रहे हैं. उनका कहना है कि अपना सम्मान बचाने या यों कहे कि अपनी नाक ऊँची रखने कि खातिर सरकार ने उसकी बलि चढ़ा दी.
       चलिए में और पहेलियां न बुझाते हुए यह साफ़ कर दूं कि यह सारी बात दिल्ली के लोगों की लाइफ-लाइन मानी जाने वाली ब्लू-लाइन बसों की हो रही है. इन बसों को राजधानी की सड़कों से हटाने का फरमान जारी हो चुका है.किसी भी सेवा के लिए सोलह बरस का कार्यकाल बहुत छोटा होता है और जब बात सार्वजानिक परिवहन प्रणाली की हो तो इतना समय तो शैशवकाल के समान है.हालाँकि ‘प्राइवेट बस परिवार’ के लिए यह कोई नई बात नहीं है. ब्लू लाइन की बड़ी बहन कहें या जन्मदाता रेड लाइन ,उसे तो दो साल में ही अकाल मौत का शिकार होना पड़ गया था.रेड लाइन ने तो दो साल में ही अपने लाल रंग को खून का पर्याय बना कर दिल्ली की सड़कों को आम लोगों के खून से लाल कर दिया था इसलिए सरकार को इनके स्थान पर शांत-सौम्य और खुशहाली के प्रतीक नीले रंग की बसों को उतारना पड़ा,लेकिन ब्लू लाइन की जन्मदाता आखिर थी तो रेड लाइन....इसलिए रंग बदलने से स्वभाव तो नहीं बदल सकता? फिर क्या था ब्लू लाइन ने रक्तपात का नया दौर शुरू कर दिया. दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रही लगभग ढाई हज़ार ब्लू लाइन बसों ने एक दशक में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान ले ली.इतने लोग तो साल भर में पकिस्तान समर्थित आतंकवादी भी नहीं मार पाए. सिर्फ इसी साल अक्तूबर तक 65 लोगों की जान इन बसों के कारण गई. ब्लू लाइन ने 2004 में 105, 2005 में 175, 2006 में 160, 2007 में 154, 2008 में 33 तथा 2009 में 123 लोगों को कुचल दिया.
             वैसे बस संचालक अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है उनका कहना है कि हम ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार बने हैं.सरकार ने नई नवेली मेट्रो ट्रेन की चकाचौंध में बसों को असमय ही सड़कों से हटा दिया. उन्हें राष्ट्रमंडल खेलों से भी शिकायत है. बस मालिकों के अनुसार यदि ये खेल नहीं होते तो दिल्ली में सुविधाओं की स्थिति में सुधार नहीं आता और सरकार की वक्र द्रष्टि उन पर नहीं पड़ती.खैर मुद्दा चाहे जो भी हो आम लोगों की जान तो कम से कम बच ही गयी.यदि ये बसें इसीतरह बेखौफ सड़कों को रोंदती हुई दौड़ती रहती तो न जाने और कितने लोगों को असमय अपने प्राण गंवाने पड़ते....

छपते-छपते: हाईकोर्ट के आदेश पर दिल्ली के कुछ इलाकों में ब्लू लाइन को चलते रहने की अनुमति फिलहाल मिल गयी है इसलिए अब इन इलाकों के लोगों का भगवान ही मालिक है.

अलौलिक के साथ आधुनिक बनती अयोध्या

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।  जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ तुलसीदास जी ने लिखा है कि अयोध्या नगर...